कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन…

 

  • खेलने कूदने के मैदान पर लगाई जा रही बगिया
  • शहर के अधिकांश मैदान अब सिर्फ टहलने लायक
  • पहले कोचिंग ने रोका खेल, अब मैदान ही नहीं बचे

अशोक सिंह

कानपुर। पड़ोस में रहने वाले एक मित्र एक दिन मेरे पास आए। वो अपने बेटे को किसी स्पोर्ट्स एक्टिविटी में इंगेज करना चाहते थे। उन्होंने कहा कि आसपास में कोई खेल का मैदान बचा नहीं है तो सोच रहा हूं कि भले ही घर से थोड़ा दूर हो, लेकिन ऐसे किसी मैदान में बेटे को भेजूं जहां वो खेल के साथ शारीरिक रूप से थोड़ी मेहनत कर सके। मित्र की कही बात पर मनन करने के बाद मुझे स्थिति की गंभीरता का अंदाजा हुआ। इन दिनों शहर में एक बयार सी बह रही है। जो भी मैदान खेलने कूदने के हैं, उनको हरियाली के नाम पर सुन्दर बना दो। यह मैदान तो देखने में वाकई बड़े सुन्दर लगते हैं लेकिन इनमें सिर्फ टहला जा सकता है। कोई भी आउटडोर खेल संभव नहीं है। एक तो खेलने लायक जगह नहीं बची और अगर फिर भी बच्चे खेलने चाहते हैं तो उसकी देखरेख करने वाले उन्हें मना कर देते हैं। ऐसे मैदानों की संख्या दिनों दिन बढ़ती जा रही है। जीवन के तीसरे और चौथे पड़ाव में कदम रखने वाले शख्स इसकी तारीफ भी करते हैं, लेकिन वे भूल रहे हैं कि बुढ़ापा संवारने के नाम पर वे बच्चों से उनका बचपना छीन रहे हैं। खेलने-कूदने की उम्र में ही उन्हें खेल से वंचित कर रहे हैं।

जब मैं अपना दौर याद करता हूं तो जेहन में वो सारी स्मृतियां ताजा हो जाती हैं जब दोस्तों के साथ घंटों मैदान में बिताया करते थे। कोच हो न हो, कोई गाइड हो न हो, खुद ही घंटों क्रिकेट या कोई अन्य खेल के जरिए खुद को फिट रखने का जुनून था। उस दौर में न तो संसाधन होते थे और न ही इतने पैसे कि संसाधन जुटाए जा सकें। स्टंप्स की जगह ईंट का विकेट बनाकर भी हम खुद को सुनील गावस्कर और कपिल देव समझते थे। वो दौर था, जब खेल में इतना मशगूल हो जाते थे कि समय का पता ही नहीं चलता था। समय का अहसास तब होता था जब घर से पिता जी या माता जी लाठी लेकर मैदान तक पहुंच जाते थे। वो दौर था और एक आज का दौर है। बच्चों का मोबाइल प्रेम बढ़ता ही जा रहा है। खेल के नाम पर वो मोबाइल गेम को ही स्पोर्ट्स एक्टिविटी समझ रहे हैं। अब जब पेरेंट्स भी चाहते हैं कि उनका बच्चा जाकर मैदान पर समय बिताए तो घरों के करीब बने मैदान गार्डेन में तब्दील हो चुके हैं। ये गार्डेन वॉकिंग के लिए अच्छे हैं, लेकिन बचपन के लिए विलेन से कम नहीं।

लेखर वरिष्ठ पत्रकार हैं

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