स्पोर्ट्स का करियर बहुत नाज़ुक होता है। एक चोट, एक गलती, एक लापरवाही और सब ख़त्म। 1997 का जूनियर हॉकी वर्ल्ड कप। डच कोच रोलंद ऑल्तमंस ने सिर्फ़ एक प्लेयर के लिए तीन कैमरा सेटअप लगवाया। ये कैमरे सिर्फ़ उसी प्लेयर को शूट करते, क्योंकि ऑल्तमंस का मानना था कि ये प्लेयर अभी तक का सबसे तेज भारतीय फ़ॉरवर्ड है। और एक कैमरा इसे पकड़ नहीं पाएगा। राजीव मिश्रा नाम के इस बच्चे की डी के अंदर की कलाकारी किसी को भी चकित कर सकती थी। स्पीड के साथ स्ट्रेंथ का मिक्सचर किसी भी डिफ़ेंस को तबाह कर सकता था।
इंडिया टुडे के लिए शारदा उगरा लिखती हैं।
‘1997 से 1998 तक, एक साल के लिए ये बच्चा ना सिर्फ Prodigy था, बल्कि यही Rock Star भी था। इंडिया जब जूनियर वर्ल्ड कप के फ़ाइनल में पहुँची, तो प्लेयर ऑफ द टूर्नामेंट बने मिश्रा ने अपने लंबे, घुंघराले बालों पर पट्टा बांध कहा- स्टाइल में, सबसे अलग दिखना चाहिए।’
भारत ने सेमी में जर्मनी को हराया था। ये टीम पहली बार सेमीफ़ाइनल में हारी थी। पिछले पाँच एडिशंस में इन्होंने लगातार चार ख़िताब जीते थे। जबकि पहली बार हुए टूर्नामेंट के फ़ाइनल में इन्हें पाकिस्तान ने हराया था। और 97 में ये हारे तो मिश्रा के गोल्डेन गोल से। तमाम दिग्गजों का मानना था कि चंद सालों में ये बच्चा दुनिया पर राज करेगा. एकदम बाइस यार्ड के सचिन जैसा। एस्ट्रो टर्फ़ में कोई इसके आसपास भी नहीं टिकेगा। लेकिन हर भविष्यवाणी सच नहीं होती। ये भी ना हुई।
पटियाला में एक प्रैक्टिस पिच। वर्ल्ड कप की तैयारी में लगे मिश्रा स्लाइड कर गेंद पर झपटे और दूसरी ओर से उसी गेंद पर गोलकीपर ए बी सुबैया भी लपके। सुबैया ज़ाहिर तौर पर पूरे गोलकीपिंग गियर के साथ थे, जबकि मिश्रा के पास बस शिन पैड रहे होंगे। टक्कर हुई, मिश्रा का बायां घुटना चोटिल। वक्त बीता। सूजन ख़त्म हुई। मिश्रा अब चलने के साथ हल्की फुल्की जॉगिंग भी कर रहे थे। उन्हें सीढ़ियां चढ़ने में भी दिक़्क़त नहीं थी। लेकिन तेज भागने और दिशा बदलते वक्त उन्हें दर्द होता था।
शारदा उगरा लिखती हैं,
‘यह एक रूटीन ट्रेनिंग इंजरी थी जो सर्जरी, रीहैब और सुपरविजन के साथ छह महीने से कम में ठीक हो जाती। लेकिन ये ना हो पाया।हॉकी इंडिया ने इस बच्चे को अकेला छोड़ दिया। चार साल में दो ऑपरेशन। डेढ़ सौ से ज़्यादा डॉक्टर्स से मुलाक़ात।नतीजा सिफ़र।चोट, जो शायद बहुत छोटी सी थी, जिससे कुछ नहीं बिगड़ना था। उसी चोट ने मिश्रा का करियर तबाह कर दिया। या यूं कहें कि इसे करने दिया गया।’
सिर्फ़ 19 की उम्र में उनकी पहली सर्जरी हुई। लेकिन 1998 सीनियर वर्ल्ड कप खेलने की लालसा में उन्होंने पूरा रीहैब नहीं किया। लौटे, फ़ील्ड पर ही लँगड़ाए और बाहर कर दिए गए।
सीनियर्स और जूनियर्स में उनके कोच रहे वी भास्करन ने कहा था…
‘ठीक है, उसने रीहैब पूरा नहीं किया। लेकिन वो एक रेडीमेड प्लेयर था और हमने उसे खो दिया।’
उगरा लिखती हैं कि
जब मिश्रा ने पहली बार चोट पर सलाह के लिए हॉकी के मालिकों से संपर्क किया। तो उन्हें कहा गया कि सर्जरी कराकर बिल भेज दें।कुल पचास हज़ार के बिल लंबे वक्त पर पेंडिंग रहे। लेकिन उस वक्त मिश्रा को पैसों से ज़्यादा चिंता और मेंटॉरशिप की ज़रूरत थी. जो दूर-दूर तक सीन में भी नहीं आई। सबने मिश्रा को अकेला छोड़ दिया। हॉकी के मालिकों ने तो मिश्रा की मदद के लिये दूसरों द्वारा लगायी गई गुहार भी नकार दी। टोटल साइलेंस।
साल 2001 में जब हमने जूनियर हॉकी वर्ल्ड कप जीता। हॉकी के मालिक केपीएस गिल ने मिश्रा के बारे में सवाल होने पर कहा।
‘You can’t take care of someone who does not want to be taken care of. इस स्तर पर प्लेयर्स को पता होना चाहिये कि अपना ख्याल कैसे रखना है।’
21 का होते-होते तमाम तरीक़ों से मिश्रा को बता दिया गया कि उनका करियर अब ख़त्म है। सिर्फ़ दो साल में मिश्रा सबसे चमकते सितारे से, दिन में घूमता जुगनू बन चुके थे। जिसकी ओर कोई देखना भी नहीं चाहता था। इस बात ने इक्कीस साल के मिश्रा को शराब की ओर मोड़ दिया। वह भयानक रूप से शराब पीने लगे। दो साल तक मामला ऐसा चला कि मिश्रा पीते-पीते ही सो जाते थे। फिर चीजें थोड़ी बदलीं। नॉर्दर्न रेलवे की नौकरी। कभी इंडियन हॉकी के भविष्य कहे गए मिश्रा अब बनारस रेलवे स्टेशन पर मौजूद सबसे युवा TTE में एक थे। महीनों तक उन्होंने अपनी यूनिफ़ॉर्म पर नेम टैग नहीं लगाया।क्योंकि मिश्रा नहीं चाहते थे कि कोई उन्हें पहचाने और हॉकी की बात करे। पूछे, कि क्या हुआ?
हालाँकि लोग फिर भी उन्हें पहचान ही लेते थे।
दूसरी सर्जरी, माँ और दोस्तों के बहुत कहने के बाद मिश्रा ने वापसी की। रेलवे के लिए कई कंपटिशन जीते। लेकिन वो करियर, जिसमें मिश्रा ने दुनिया का सबसे ख़तरनाक सेंटर फ़ॉरवर्ड होने का सपना देखा था टूट कर ख़त्म हो चुका था। रेलवे में बहुत जूनियर लेवल से शुरू करने वाले मिश्रा बस TTE बनकर रह गए।
हॉकी उनके जीवन से कब की जा चुकी थी, आज मिश्रा भी चले गए। बस रह गया ऐडमिनिस्ट्रेशन, जो ना जाने कितने राजीवों को खा चुका है और आगे भी खाता रहेगा। क्योंकि ये सिस्टम कोई बदलना नहीं चाहता. सबको इसकी लत लग चुकी है। लत, जो ज़िंदगी के साथ जाती है।
साभार फेसबुक पोस्ट